Saturday, January 3, 2009

विडम्बना

भाग्य का यह कैसा खिलवाड़ ,
क्षण भर में ढह जाए स्वप्नों की बाड !
ग्रह नक्षत्रों का कैसा ये खेल,
जीवन बन गया मेरा तो रेल !
मैं कहीं ठहर नहीं पाता हूँ,
रुकना चाहूं फिर भी ख़ुद को चलता पाता हूँ !
ठहेरून तो पैरों तले आधार नहीं मिल पाता है,
वर्षों से यह मानव ख़ुद को अनजानी राहों में पाता है !!

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