Sunday, July 11, 2021

अधजली सिगरेट 


मेरी जिंदगी उसी सिगरेट सी जल रही है,
जो  मैंने कल सुबह पी थी | 
थोड़ी उम्मीदें वैसे ही सुलग रही है,
जैसे बुझती झड़ती राख | 

क्या मैं वक़्त से पहले यूँ ही मिट जाऊँगा,
जैसे वह अधजली सिगरेट | 
क्या मैं वक़्त के पैरों टेल वैसे ही मसला जाऊँगा,
जैसे वह अधजली सिगरेट | 

Friday, January 23, 2009

बेबसी

मुझ खँडहर से न पूछो, आबादियाँ क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ बस विरानियाँ क्या होती हैं ।

मुझसे न पूछो पूर्णमासी की चांदनियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ श्याह तनहा रातों में जिन्दगानियां क्या होती हैं

मुझसे न पूछो, महकते उपवन की क्यारियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ शमशान में जिन्दगानियां क्या होती हैं ।


मुझसे न पूछो प्रीत की किलकारियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ बेबसी की सिसकारियां क्या होती हैं ।

आर्तनाद !

आर्तनाद! करता है अंतस, तुझ बिन छलके बरबस ।
झुलस गया मेरा सर्वस्व, वियोग के उस दावानल में ।
वर्णित न कर पाया प्रीतम, व्यथा कथा अपने अंतस की ।

कितना प्रेम भरा निवेदन नयना करते थे नैनो से ।
क्या नैनो की भाषा समझ नहीं आती थी तुझको ।
या मेरी प्रेम पूर्ण प्रेमांजलि नहीं कभी भाती थी तुझको ।

मै अब तक नहीं समझ पाया क्या कारण था, यूँ छिप जाने का ।
देख मुझे निकट तेरा ये प्रेम पूर्ण शर्माने का ।

अपने अधरों की रसना से, कर दो दूर ये प्यास पुरानी ।
अपने नैनो की छाया में सिमटा लो ये अमर कहानी ।

अपनी मादक स्वासों से कर दो स्पंदित कविता वीणा ।
स्नेह की मादकता भर दो, हर कर वियोग की पीड़ा ।

जीवन की शाम

जीवन की अँधेरी शाम और कष्टों की भरमार !
तू तो भोग रही है कैसे कष्टों का अम्बार !!

देख तुझे मन में मेरे पीड़ा बहुत समाती है !
क्या सब के जीवन में ऐसी ही शाम आती है !!

परम पिता से करुँ याचना हो तेरे कष्टों का निवारण !
इस जीवन से मुक्ति पा कर, तू कर नव तन धारण !!

"यह कविता एक गाय के लिए मेरी भावनाओं को व्यक्त करती है जो एक सड़क के किनारे कई दिनों से मरणासन्न हालत में पड़ी कष्ट पा रही थी । इस कविता में की गयी मेरी प्रार्थना को परम पिता ने तुंरत स्वीकार कर उस गाय को उसी रात मुक्ति प्रदान की । "

Saturday, January 3, 2009

कश्मकश

उसे सामने पाने को कब से हैं आँखे प्यासी ,
कर कर इन्तजार यूँ ख़ुद को पाता हूँ एकाकी !
अब तो कुछ क्षण जीवन में ऐसे बाकी,
जिनमे दूर कर सकता हूँ अपनी एकाकी !

कशमकश में बीत गयी यह भी रात आधी,
विचलित यूँ ही होता हूँ ज्यों ही बीते रात आधी !
पलक झपकाता ख़ुद को समझाता,
दिल है की बात कोई समझ न पाता !
बस वह उस ओर ही जाता, उस ओर ही जाता !!

विडम्बना

भाग्य का यह कैसा खिलवाड़ ,
क्षण भर में ढह जाए स्वप्नों की बाड !
ग्रह नक्षत्रों का कैसा ये खेल,
जीवन बन गया मेरा तो रेल !
मैं कहीं ठहर नहीं पाता हूँ,
रुकना चाहूं फिर भी ख़ुद को चलता पाता हूँ !
ठहेरून तो पैरों तले आधार नहीं मिल पाता है,
वर्षों से यह मानव ख़ुद को अनजानी राहों में पाता है !!

उलझन

सूनी सूनी थी एक रात, मन पूछे बस एक ही बात
कब आयेगा ऐ युग वो क्षण, जब करे सफलता ख़ुद को अर्पण
होगा कब खुशियों का वर्षण, करे उद्वेलित दुनिया के आकर्षण
उजड़ा चमन खिलेगा कब, भंवरा कलियाँ चूमेगा कब
प्रेम राग गूंजेगा कब, मेरा मीत मिलेगा कब
प्रेम प्रवाह की सरिता में, मैं तो प्रति क्षण डूबा जाऊं
लक्ष्य साधन की लिए प्रेरणा, बस आगे बढ़ता जाऊं