Friday, January 23, 2009

बेबसी

मुझ खँडहर से न पूछो, आबादियाँ क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ बस विरानियाँ क्या होती हैं ।

मुझसे न पूछो पूर्णमासी की चांदनियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ श्याह तनहा रातों में जिन्दगानियां क्या होती हैं

मुझसे न पूछो, महकते उपवन की क्यारियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ शमशान में जिन्दगानियां क्या होती हैं ।


मुझसे न पूछो प्रीत की किलकारियां क्या होती हैं ।
मैं तो बता सकता हूँ बेबसी की सिसकारियां क्या होती हैं ।

आर्तनाद !

आर्तनाद! करता है अंतस, तुझ बिन छलके बरबस ।
झुलस गया मेरा सर्वस्व, वियोग के उस दावानल में ।
वर्णित न कर पाया प्रीतम, व्यथा कथा अपने अंतस की ।

कितना प्रेम भरा निवेदन नयना करते थे नैनो से ।
क्या नैनो की भाषा समझ नहीं आती थी तुझको ।
या मेरी प्रेम पूर्ण प्रेमांजलि नहीं कभी भाती थी तुझको ।

मै अब तक नहीं समझ पाया क्या कारण था, यूँ छिप जाने का ।
देख मुझे निकट तेरा ये प्रेम पूर्ण शर्माने का ।

अपने अधरों की रसना से, कर दो दूर ये प्यास पुरानी ।
अपने नैनो की छाया में सिमटा लो ये अमर कहानी ।

अपनी मादक स्वासों से कर दो स्पंदित कविता वीणा ।
स्नेह की मादकता भर दो, हर कर वियोग की पीड़ा ।

जीवन की शाम

जीवन की अँधेरी शाम और कष्टों की भरमार !
तू तो भोग रही है कैसे कष्टों का अम्बार !!

देख तुझे मन में मेरे पीड़ा बहुत समाती है !
क्या सब के जीवन में ऐसी ही शाम आती है !!

परम पिता से करुँ याचना हो तेरे कष्टों का निवारण !
इस जीवन से मुक्ति पा कर, तू कर नव तन धारण !!

"यह कविता एक गाय के लिए मेरी भावनाओं को व्यक्त करती है जो एक सड़क के किनारे कई दिनों से मरणासन्न हालत में पड़ी कष्ट पा रही थी । इस कविता में की गयी मेरी प्रार्थना को परम पिता ने तुंरत स्वीकार कर उस गाय को उसी रात मुक्ति प्रदान की । "

Saturday, January 3, 2009

कश्मकश

उसे सामने पाने को कब से हैं आँखे प्यासी ,
कर कर इन्तजार यूँ ख़ुद को पाता हूँ एकाकी !
अब तो कुछ क्षण जीवन में ऐसे बाकी,
जिनमे दूर कर सकता हूँ अपनी एकाकी !

कशमकश में बीत गयी यह भी रात आधी,
विचलित यूँ ही होता हूँ ज्यों ही बीते रात आधी !
पलक झपकाता ख़ुद को समझाता,
दिल है की बात कोई समझ न पाता !
बस वह उस ओर ही जाता, उस ओर ही जाता !!

विडम्बना

भाग्य का यह कैसा खिलवाड़ ,
क्षण भर में ढह जाए स्वप्नों की बाड !
ग्रह नक्षत्रों का कैसा ये खेल,
जीवन बन गया मेरा तो रेल !
मैं कहीं ठहर नहीं पाता हूँ,
रुकना चाहूं फिर भी ख़ुद को चलता पाता हूँ !
ठहेरून तो पैरों तले आधार नहीं मिल पाता है,
वर्षों से यह मानव ख़ुद को अनजानी राहों में पाता है !!

उलझन

सूनी सूनी थी एक रात, मन पूछे बस एक ही बात
कब आयेगा ऐ युग वो क्षण, जब करे सफलता ख़ुद को अर्पण
होगा कब खुशियों का वर्षण, करे उद्वेलित दुनिया के आकर्षण
उजड़ा चमन खिलेगा कब, भंवरा कलियाँ चूमेगा कब
प्रेम राग गूंजेगा कब, मेरा मीत मिलेगा कब
प्रेम प्रवाह की सरिता में, मैं तो प्रति क्षण डूबा जाऊं
लक्ष्य साधन की लिए प्रेरणा, बस आगे बढ़ता जाऊं

आओ झूमो नाचो गाओ मेरे संग...

रुलाने चले आपको जो ख़ुद रो बैठे,
बहकाने चले आपको जो ख़ुद बहके !
छोड़ ये बातें सोचे कैसे गुलशन में गुल महके ,
बुझे कैसे आग जो सीने में बरसों से दहेके !!

बहक गए हम क्योंकि भावुक हैं हम,
झुक गए हम क्योंकि नाजुक हैं हम !
आए थे जो तूफ़ान वो गए थम,
उतर गया अब तो सैलाबे गम !!

नयी शुरुवात करें जागे नयी आस,
आया है बसंत का महेकता हुआ मास !
कोयल की कूक और भीनी सुगंध आए रास,
चल के उपवन में हम करते हैं वास !!

नयी हो उमंग और नयी है तरंग,
जीवन में बहरें हम प्यार के रंग !
आओ झूमो नाचो गाओ मेरे संग,
जहाँ रेत हो ठंडी, ठंडी बहेती हो गंग !!

आओ झूमो नाचो गाओ मेरे संग !!

भाव

हुआ प्रभात अब गयी रात, पक्षी चाह्चाहाये !
खोल नयन अब बीती रैन, भंवरे गुनगुनाये !
सो न जा कहीं खो न जा, विवेक तुझे जगाये !
हुई प्रीत ये कैसी रीत, भावों ने दीप जलाये !
प्रेम धार वह सुंदर नार, ह्रदय में बहाए !
प्रेम राग ये अनुराग, आंदोलित करता जाए !
ये अगार ये पवित्र प्यार, एकाकीपन मिटाए !
ये वायु मंद फैली सुगंध, प्रेम रस में डुबाये !
बह न जाऊं कहीं रह न जाऊं, सीमा बाँध बनाये...

परिवर्तन

परिवर्तन तो जीवन है, परिवर्तन को अपनाना है
बीत गया जो छोड़ उसे, उज्ज्वलता को पाना है
बीती रातों से ले उपदेश, तू कर भविष्य में प्रवेश
वर्तमान में कर कर्म सदा, तू स्वप्ने नहीं संजोना
भविष्य में अपना लक्ष्य जान, आगे आगे बढना ...

Friday, January 2, 2009

सृजन

स्रजन करो ए नवजवान कुछ,
यूँ हँसने में समय गंवाते हो |
औरों पर हंस हंस कर ,
ख़ुद पर इतना इठलाते हो |
लगती महेनत कड़ी तब,
कोई चीज सृजित होती है |
देखो तेरे अन्दर भी,
वही आत्मा सोती है ||

बेवफाई ...

डर लगने लगा है अपनी परछाइयों से !
टूटता जा रहा हूँ अपनों की बेवफाइयों!!
जी चाहता है कि उनसे शिकवे करूं !
समझ नहीं आता पेश कैसे करूं !!
बेवफाई का कैसा ये अंदाज़ है !
समझ नहीं आता इसमें क्या राज है!!
कल तक तो साथ जाम छलकते थे !
साथ पी के सडकों में हम बहेकते थे !!
आज पैमाना लिए करते इन्तजार हैं !
वो दूसरी महफिलों में मसरूफ करते हमे बेजार हैं !!
सोचते हैं बिना उनके तबियत ढल जायेगी !
अरे हमको भी नयी महफ़िल मिल जायेगी !!

प्रवाह

एय मेरे भावों की सरिता, तू है मेरे जीवन की कविता!
तुझमे पुष्पित पल्लवित हो, मेरी जीवन की लता !!

बाँध तोड़ता उमड़ता तेरा, प्रवाह है चंचल !
तेरे प्रवाह में हो प्रवाहित वियोगी राजीव विकल !!

प्रार्थना

अपने उलझे जीवन की कुछ खुशियों से,
कर दूँ झंकृत तेरा जीवन संगीत!
प्रस्फुटित रवि किरणों सा उज्जवल हो,
जीवन तेरा बस इतना ही मांगे मेरी प्रीत!!

हर रात्रि को झिलमिलायें आशाओं के स्वप्निल सितारे,
हर दिवस सजा कर लाये जीत !
स्नेह मेरा है अर्पण तुझ पर ,
भूल न जाना मेरे मीत !!

रिश्ता

ऐसा अक्सर क्यों होता है, लगता कोई अपना सा !
बीते जन्म की याद पुरानी, प्रात प्रहर के स्वप्नों सा !!

कोई डोर तो छिपी होती है, जो खींचे अनजाने को!
बिन चाहत बिन कारण के कहता ये मन मिल जाने को !!

आखिर कुछ तो होता होगा किस्सा पिछले जन्मों का !
तुझ में भी मैंने खोजा है रिश्ता पिछले कई जन्मो का !!

किस जन्म में डोर बंधी थी कब तक मुझको तुझ तक खींचेगी !
प्रीत के इन रिश्तो को प्रेम स्नेह से सींचेगी !!

जीवन के स्पंदन से तेरे ही सुख गीत मांगूं !
क्या हो तुम मेरे क्यों हो कुछ न समझूं कुछ न जानूं !!

गुत्थी


रूप सुनहेरा चाँद सा चेहरा, लतें काली घनघोर
तुझे देखने को प्यासी हैं ऑंखें, कब से सुन मेरी चितचोर
जीवन के देखे रंग अनेक, एक यही है भाया
शिशिर की सुनहरी धुप सी, सुंदर तेरी काया

देखा आँखों में तेरे एक चुंबकीय आकर्षण,
मानो करे शाश्वत प्रेम का वर्षण
क्या ये वर्षण मुझ पर ही है या भ्रम है मेरा,
मुझ पर नहीं ध्यान है तेरा

गुत्थी सुलझ नहीं पाती है,
जितना सुलझाता हूँ उतनी और उलझ जाती है
तू मेरी जीवन की कविता है जिसको नित मैं गाता हूँ
दूर चाहे जितना रहे ले तू पास सदा पता हूँ

मुझ वैरागी का वैराग है तू,
मेरी जीवन का राग है तू
मेरे स्वप्नों का श्रृंगार है तू,
मेरे जीवन का आधार है तू

मेरा सब कुछ तू ही तू बस तू सिर्फ़ तू ...



प्रेम!!

दीप्त हुई प्रेम की लव, जबसे मेरे मन में !
चंचल लहरें उद्द्वेलित होती प्रतिपल मेरे मन में !!
शांत भाव् परिणित हो गए पक्षियों के कलरव तुमुलों में !
कविता वाणी झंकृत होती वीणा की स्वर लहेरी सी!!
ज्यों - ज्यों वह छवि प्रतिबिंबित होती!
होती प्रस्फुटित किसी कली सी !!

प्रेम की परिकल्पना


मनु के अवतरण से ही जन्मी प्रेम की परिकल्पना!
रूप बदले, भाषा बदली, बदल गए अभिव्यंजना!
पहेले तो श्रद्धा निहित थी अब निहित है वासना!
प्रेम बन गया, दो योवनों में एक उच्श्रंखल कमाना !
डूब कर इतना मैं जाना है यह लम्बी प्रार्थना!

प्रेम की परिभाषा


"नव द्रूमित नव पुष्पित पल्लव !
स्रसटाः का यह सुंदर अभिनव!!
सुंदर सुकोमल अति मोहक !
प्रेम सरल भावों का पोषक !!"